योग, संस्कृत में "युज" धातु से बना है, जिसका अर्थ है जुड़ना या एकजुट होना। यह केवल शारीरिक व्यायाम या आसन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मा, मन और शरीर के बीच संतुलन स्थापित करने का मार्ग है। योग प्राचीन भारतीय संस्कृति की एक ऐसी देन है, जिसने पूरे विश्व को प्रभावित किया है। महर्षि पतंजलि ने इसे "चित्तवृत्ति निरोधः" के रूप में परिभाषित किया, अर्थात मन की चंचलताओं को रोकना।
संस्कृत के श्लोकों में योग का जो सार छिपा है, वह जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है। इन श्लोकों के माध्यम से हम योग के दर्शन, लाभ और इसे जीवन में उतारने के महत्व को समझ सकते हैं।
संस्कृत श्लोक और उनका अर्थ
1. योग: कर्मसु कौशलम्।
- (भगवद गीता 2.50)
- अर्थ: योग का अर्थ है कार्य में कुशलता। यह हमें यह सिखाता है कि हर कर्म को बिना किसी लालच या तनाव के पूरी निष्ठा से करना चाहिए। जीवन में संतुलन और कुशलता ही सच्चे योग का प्रतीक है।
2. चित्तवृत्ति निरोधः।
- (पतंजलि योग सूत्र 1.2)
- अर्थ: योग का उद्देश्य मन की चंचलताओं को नियंत्रित करना है। यह हमें आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर ले जाता है, जहाँ मन शांत और स्थिर होता है।
3. सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
- (भगवद गीता 2.38)
- अर्थ: योग वह अवस्था है जहाँ सुख-दुख, लाभ-हानि, और जीत-हार को समान दृष्टि से देखा जाए। यह मानसिक शांति और स्थिरता की स्थिति है।
4. अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।
- (भगवद गीता 6.35)
- अर्थ: योग को केवल अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। यह श्लोक निरंतरता और इच्छाओं से मुक्ति के महत्व को दर्शाता है।
5. शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
- (शंकराचार्य)
- अर्थ: शरीर धर्म का पहला साधन है। योग के माध्यम से शरीर स्वस्थ और मजबूत बनता है, जिससे कर्तव्यों का पालन करना संभव हो पाता है।
6. प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत्।
- (हठयोग प्रदीपिका)
- अर्थ: प्राणायाम के अभ्यास से शरीर के रोग समाप्त हो जाते हैं। यह शरीर के ऊर्जा चक्र को संतुलित करता है।
7. ध्यानं निर्विशयं मनः।
- (पतंजलि योग सूत्र)
- अर्थ: ध्यान वह अवस्था है जब मन बाहरी विषयों से पूरी तरह मुक्त होता है। यह आत्मा से जुड़ने और भीतर की शांति पाने का माध्यम है।
8. योगेन देहमधिगच्छति।
- (व्यास सूत्र)
- अर्थ: योग से शरीर और आत्मा की शक्ति में वृद्धि होती है। यह श्लोक हमें योग के शारीरिक और आत्मिक लाभ की याद दिलाता है।
9. तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः।
- (पतंजलि योग सूत्र 1.13)
- अर्थ: योग का अभ्यास तब तक करना चाहिए, जब तक मन और आत्मा स्थिर न हो जाए। यह दृढ़ता और अनुशासन की आवश्यकता को दर्शाता है।
10. योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
- (भगवद गीता 2.47)
- अर्थ: योगस्थ होकर अपने कर्तव्यों का पालन करो, और कर्म के फल की चिंता मत करो।
11. अष्टांगयोगः।
- (पतंजलि योग सूत्र)
- अर्थ: अष्टांग योग के आठ अंग – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – का अभ्यास करते हुए योग की पूर्णता प्राप्त की जा सकती है।
12. मनः प्रशमः योगः।
- (महाभारत)
- अर्थ: योग का अर्थ है, मन की शांति।
13. तपस्विभ्योऽधिको योगी।
- (भगवद गीता 6.46)
- अर्थ: तपस्वियों और ज्ञानियों में योगी सबसे श्रेष्ठ होता है।
14. कायेन्न वाचा मनसेंद्रियैर्वा।
- (भागवत पुराण)
- अर्थ: शरीर, वाणी और मन को संयमित करना योग है।
15. सर्वं योगेन साध्यते।
- (योग वशिष्ठ)
- अर्थ: योग के माध्यम से सब कुछ संभव है।
16. योगः समत्वं उच्यते।
- (भगवद गीता)
- अर्थ: योग का अर्थ है, समानता और संतुलन।
17. न योगो ह्यस्मिन दुष्करः।
- (भगवद गीता)
- अर्थ: योग कठिन नहीं है, बल्कि यह अभ्यास से सरल बन जाता है।
18. आसने स्थितः सुखं योगः।
- (हठयोग प्रदीपिका)
- अर्थ: सही आसन में बैठकर शरीर और मन को स्थिर करना ही योग है।
19. योग आत्मसंयमः।
- (पतंजलि योग सूत्र)
- अर्थ: योग का अर्थ है आत्मा का संयम।
20. सत्यं योगस्य मूर्तिः।
- (वेदांत सूत्र)
- अर्थ: सत्य योग की आत्मा है।
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निष्कर्ष
संस्कृत श्लोकों में योग का सार और ज्ञान समाहित है। यह न केवल एक शारीरिक अभ्यास है, बल्कि जीवन जीने का एक दर्शन है। योग से मन शांत, शरीर स्वस्थ और आत्मा शुद्ध होती है। आधुनिक जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए योग का अभ्यास करना बेहद जरूरी है।
"योग को अपनाएं, इसे अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाएं और अपने भीतर छिपी असीम शांति और शक्ति का अनुभव करें।"